व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1772 – निधन 1833]
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1869 – निधन 1948]
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1861 – निधन 1941]
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1866 – निधन 1915]
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1820 – निधन 1891]
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1887 – निधन 1971]
(Note:- This Artical is only for Master of Social Work college's students study purpose )
ऐसा नहीं है कि बिना वजह ही राजा राममोहन
को भारतीय पुनर्जागरण का जनक कहा जाता है। बतौर एक प्रखर और जुनूनी समाज
सुधारक के नाते, वे विधवाओं के पुनर्विवाह, बालिकाओं की शिक्षा और
उत्तराधिकार कानूनों में बदलावों के शुरूआती पैरोकारों में से थे। बेशक,
सती प्रथा का अंत भी उन्हीं के प्रयासों का ही नतीजा है।
उनकी मानवाधिकारों, लोकतांत्रिक मूल्यों
और लोगों के साथ संवाद स्थापित करने की तत्परता से जुड़ी प्रतिबद्धता ही
उन्हें सर्वोत्कृष्ट उदारपंथी बनाती है। उन्हीं से आधुनिक भारतीय उदारपंथी
आंदोलन का आरंभ होता है।
वे चाहते थे कि पाश्चातय शिक्षा को
प्रोत्साहित तो किया जाए लेकिन भारतीय भाषाओं की कीमत पर नहीं। बहुमुखी
प्रतिभा के धनी, वे पहले आम भारतीय थे जिन्होंने इंग्लैण्ड की यात्रा की।
उन्हें सही मायनों में आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है।
उन्हें धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन के
अगुवा विद्वानों में से एक माना जाता है। जिन्होंने इस्लाम और ईसाई समेत कई
धर्मों का संवेदी और समालोचनात्मक तरीके से अध्ययन किया। उनके अंदर चल रही
अशांति के चलते ही वे धार्मिक ज्ञानोदय चाहते थे और मौजूदा हिंदुत्व से
अंसतुष्टता के कारण ही उन्होंने 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की।
महात्मा गांधी का सार्वजनिक जीवन उनके
उदारवादी मूल्यों में टिकाऊ विश्वास का अच्छा प्रमाण है। चाहे वह असहमति का
अधिकार हो, उनके आश्रम में होने वाली घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण की
प्रतिबद्धता, विरोधी विचारों को संयम से सुनना और हिंसा के प्रति उनकी
घृणा, हर मायनों में गांधीजी एक सर्वोत्कृष्ट उदारवादी थे। उनकी गहन आस्था
थी और उन्होंने राजनीति को अध्यात्मिकता के रंग में रंगा। किन्तु उनकी
राजनीति पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष आधारित थी। वे इस कहावत पर यकीन करते थे कि
वही सरकार सर्वश्रेष्ठ होती है जो कम-से-कम लोगों पर शासन करती है। दलितों
के उत्थान के लिए वे जोश से भरे हुए थे (उन्होने उनका नाम हरिजन रखा- जिसका
मतलब ईश्वर की संतान होता है)। उन्होंने हरिजन उत्थान के लिए निरन्तर
टिकाऊ और रचनात्मक कार्य किए।
ये कवि-दार्शनिक दिल से पूरी तरह मानवतावादी था। वैश्विक शांति, भाईचारे
और आध्यात्मवाद के लिए लगाव उनके रचनात्मक कार्यो में बखूबी झलकता है।
उन्होंने धर्म में संप्रदायवाद का विरोध किया और वे विज्ञान के
विध्वंसात्मक प्रयोग से भी काफी आहत थे। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता से
प्रेरित भौतिकतावाद का विरोध किया जिसे आक्रामक वैयक्तिकतावाद से चित्रित
किया जाता था। वे पहले एशियाई नागरिक थे जिन्हें साहित्य के लिए नोबेल
पुरस्कार मिला।
उनकी रुचि विभिन्न विधाओं में थी। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं
में यादगार लेखन कार्य किया। चाहे वे नाटक, कविताएं, उपन्यास, कहानियां या
निबंध हों। इनकी रचनाओं का लगातार अनुवाद होता रहा है और इन पर जमकर टीका
भी लिखी गई हैं। शिक्षा में रुचि के परिणामस्वरूप उन्होंने विश्वभारती
विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसका स्वरूप अपने आप में अद्वितीय है। यहां
यूरोप और चीन की प्रसिद्ध फेकल्टी अपनी सेवाएं दे चुकी हैं। साथ ही भारतीय
प्रोफेसरों को भी भुलाया नहीं जा सकता। उनके गीत आज भी उसी तरह प्रसिद्व
हैं जैसे उनके समय में हुआ करते थे।
महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य गोपाल
कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस
करने की क्षमता से उन्हें भारत का ग्लेडस्टोन कहा जाता है। वे भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस में सबसे प्रसिद्ध नरमपंथी थे। चरित्र निर्माण की
आवश्यकता से पूर्णत: सहमत होकर उन्होंने 1905 में सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया
सोसायटी की स्थापना की ताकि नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित
किया जा सके। उनका मानना था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा भारत की
महत्वपूर्ण आवश्यकता है। स्व-सरकार व्यक्ति की औसत चारित्रिक दृढ़ता और
व्यक्तियों की क्षमता पर निर्भर करती है। महात्मा गांधी उन्हें अपना
राजनीतिक गुरु मानते थे।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1891 – निधन 1956]
भारत के प्रख्यात दलित समर्थक नेता
जिन्होंने अपने लोगों के उद्धार और स्वीकृति के लिए जीवन भर काम किया।
उन्होंने समाज से न सिर्फ दलितों के लिए रियायतें लीं, बल्कि समुदाय में
कुछ आत्मविश्वास जगाने का काम भी किया। उन्होंने लक्ष्यों को हासिल करने कि
लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण माना और इसके प्रचार के लिए अनेक जर्नल और कई
शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना भी की। संविधान सभा के सदस्य होने के नाते
उन्होंने संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिसे दुनिया भर में
उदार मूल्यों से रचे-बसे एक सर्वमान्य दस्तावेज के रूप में पहचान मिली।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1820 – निधन 1891]
नैतिक मूल्यों के संरक्षक शिक्षाविद्
विद्यासागर का मानना था कि अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के ज्ञान का समन्वय
करके ही भारतीय और पाश्चात्य परंपराओं के श्रेष्ठ को हासिल किया जा सकता
है। उन्होंने देशी भाषा (वर्नाक्युलर एजुकेशन) और लड़कियों की शिक्षा के
लिए स्कूलों की एक श्रृंखला के साथ ही कलकत्ता में मेट्रोपॉलिटन कॉलेज की
स्थापना भी की। उन्होंने इन स्कूलों को चलाने में आने वाले खर्च का बीड़ा
उठाया और अपनी बंगाली में लिखी गई किताबों, जिन्हें विशेष रूप से स्कूली
बच्चों के लिए ही लिखा गया था, की बिक्री से फंड उगाहा। ये किताबें हमेशा
बच्चों के लिए खास रही हैं जो शताब्दी या उससे ज्यादा समय तक पढ़ी जा रही
हैं।
जब वे कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के
प्रिंसिपल थे तब उन्होंने इसे सभी जाति के छात्रों के लिए खोल दिया। ये
उनके अनवरत प्रचार का ही नतीजा था कि विधवा पुनर्विवाह कानून, 1856 आखिरकार
पारित हो सका। उन्होंने इसे अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना।
उन्होंने बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ भी संघर्ष छेड़ा।
उनके समझौता न करने वाले सिद्धांत, एक
योद्धा जैसा जीवन और सहृदयता ने उन्हें अपने समय की बंगाल की एक प्रसिद्ध
हस्ती में बना दिया था।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1887 – निधन 1971]
केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक मंत्री,
लंबे समय तक एक प्रसिद्व वकील और ख्याति प्राप्त गुजराती लेखक जिन्होंने
अपनी भाषा और साहित्य का प्रचार किया। वे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता
थे। उन्हें अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए ब्रिटिश शासनकाल में गिरफ्तार
किया गया। कांग्रेस द्वारा बंबई में बनाई गई प्रथम सरकार में वे गृहमंत्री
थे और बाद में भारत के कृषि मंत्री रहे। उन्होंने भारतीय विद्या भवन की
स्थापना की। (जिसके लिए उन्हें कुलपति की उपाधि प्रदान की गई) साथ ही
उन्होंने बहुत-सी सांस्कृतिक और धर्मनिरपेक्ष संस्थाओं की स्थापना की। वे
स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक उपाध्यक्ष भी थे।
(Note:- This Artical is only for Master of Social Work college's students study purpose )
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